निन्यान्न्बे का चक्कर , नहीं किसी का डर,
किसने उगाई फसल ,कौन रहा काट ?
हृद निर्मल न रहे ...बन गए है काठ ,
माली ने बेच दी फिर से कच्ची पौध ,
कितनी कलियाँ खिली नहीं ,
दी गई हैं नोंच....
हँसना तो सीखी नहीं ,
और रोने पर भी रोक ,
भले ही टूटे दिल ,और छूटे साथ ,
जिस्म की दूकान में बिकती हाथों हाथ ...
कैसे भी ? कुछ भी करके आना चाहिए पैसा ,
होड़ लगी है भाई, न हो कोई मेरे जैसा ....
जब स्वार्थ से दूषित है सोच ,
"तब कलियुग को क्यों दे दोष ".
wah kya baat hai..bahut kuch dkeha hai samaaj me aisa mahsoos hua...
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