Saturday, February 13, 2010

मिलावट

आज सब्जी में , दालमें ,काल में ,हर चालमें ;
है मिलावट,व्यर्थ का आडम्बर ...
ऊपरी सजावट,
सशक्त नहीं जब तन ,बोझ उठाये कैसे मन ,
स्वारोपित दर्पण, बढती जाती है झुझलाहट,
डूबा है कर्ज में 'अपने घर' का स्वपन ,
साहूकार अब बैंक बने ,
ब्याज चुकाता बाप ,बढती बेटे की अकुलाहट ,
विशवास की परम्परा धूमिल पड़ गयी है ;
आज मंत्री की ,संतरी की ,पंडित की जंतरी की ,
झूठी है लिखावट,
रे मन ! संतोष का बीज बो ले अब ,
स्वस्थ रहे पीढ़िया न झेले कोई रुकावट ,
घरौदे बने ; बस सके बार -बार ...
बढती रहे निरंतर दीपावली की जगमगाहट ...

1 comment:

  1. "डूबा है कर्ज में 'अपने घर' का स्वपन" beautifully written...

    ReplyDelete