Monday, April 2, 2012

स्वप्न

अनगढ़ अनमने से अब तक,
कुछ स्वप्न बचपने से अब तक,
लगे कभी बचकने से ..
कई स्वप्न अनसुने से अब तक...

कुछ टूटे कुछ  रूठे..
कुछ बदली में धुल के छूटे..
कुछ भूलभुलैया में उलझे ..
कई स्वप्न बेगाने से अब तक..

कुछ बुढ़ापे से रंगीन, कुछ हसीं जवानी से..
कुछ मील के पत्थर से लगते..
कई स्वप्न भटके पथिक से अब तक..

कुछ दुःख की नमकीन डली से.. 
कुछ कहकहों की कली से..
कुछ बुलबुलों से फटते..
कुछ गुमशुदा कही किसी..
सीप में मोती से अब तक...

सीधे .. कुछ जलेबी से ..
कुछ कडवी निम्बोली से..
लगे कुछ भेलपुरी से चटपटे..
कुछ स्वप्न रसीले से अब तक..

प्रयत्न करो, करो स्वप्न सार्थक..
नहीं खरीदने पड़ते स्वप्न किसी हाट से ..
ये मन के रहिवासी, पथिक गगन के ..
इनके संग चलो .. उड़ चलो ...
ओ बटुक मुसाफिर चले चलो .... 
 
   

Sunday, March 25, 2012

सखी

तुम मेरी आदत में शुमार हो,
बचपन की राजदार हो,
मेरे मन की बयार -
- तो कभी मेरे शब्दों की फुहार हो,
 हाँ तुम ही तो मेरे अंतर्मन की रसधार हो..
कभी कभी हम मिल नहीं पाते,
जब मन के दावानल ज्यादा झुलसा जाते ,
तब याद तुम्हारी आती है ,
पथिक हूँ सबकी तरह ,
जीविका - जिजीविषा रुकने नहीं देती ,
एक पल को भी थम के तुम्हे छूने नहीं देती ,

पर जब तनहाई है ज्यादा सताती ,
तब तुम्हारा हाथ थाम कुछ पल मैं चैन की सांस लेती ...
ओ लेखनी तुम मेरी सच्ची सहचरी हो   :)

Friday, March 23, 2012

किस्मत

कहने को कुछ ज्यादा नहीं,
अफ़साने अलहदा हैं,
किसी कब्र पे चढ़े हैं फूल,
कोई कब्र ग़मज़दा है...

तारीख़

तारीख़ नहीं मोहताज किसी यादगार की,
तारीख़ को यादगार किरदार बनाते हैं...

तुम

मेरे जीवन के मुक्त छंद,
मनदर्पण के तुम विमल अंश ....
मकरंद, मधुप मनोभावों के,
संस्कृति के हो तुम परमहंस .....
तन प्राण श्वास के प्रवाहक ,
मम स्तुति के तुम प्रथम मंत्र ....
अज्ञेय परे मन चिंतन के ,
शबरी के जूठे चुने कंद...
अनुभूत सहज पूर्वगामी ,
मेरे प्रवास के प्रेम पंख ....




Wednesday, November 30, 2011

नहीं चाहिए मुझे

माँ , नहीं भाता मुझे  ;तुम्हारा ऑफिस जाना ,
 नहीं चाहिए  मुझे ;अच्छी फ्रोक ; महंगा  खिलौना ,
माँ ,लगता है अच्छा  मुझे;  स्कूल को जाते -आते समय ;
 चेहरा तुम्हारा  देखना ,
चाहती हूँ मै;  तुम संग खेलना
कभी तुम्हारे हाथ से खाना ;तुम संग सोना ,
माँ ,कामवाली की नहीं ; लगता है  अच्छा  मुझे ;
तुम्हारी डांट खाना ,
माँ नहीं चाहती मै ; तुम्हे ये सब सुनाना,
क्यूकी नहीं अच्छा लगता मुझे" तुम्हारा रोना "
माँ की है मैंने  " भगवान " से प्रार्थना कि......
अगले जनम मुझे" कंगारू " बनाना,
माँ मै  भी चाहती हूँ........
 उसके बच्चे के जैसे तुमसे चिपकना,
हमेशा ......तुम संग रहना .......,

Thursday, November 24, 2011

तर्क

शर्म अब बन गयी है नर्म ,
यहाँ -वहां जज़्बात बेचते लोग ;
हो गए खरीददारी के बाज़ार गर्म ,
भीतर के खुदा को शैतान बना के लोग ;
करते है भाई-भाई में फर्क ,
है सबके भीतर लहू एक सा ....
इंसानियत के "हे ठेकेदारों "!
मत दो ,मत दो 'अब मत दो ...
मंदिर ,मस्जिद ,को अलग करने वाले तर्क ,

Wednesday, November 23, 2011

नेट

कितनी ख़ुशी से लगाते है लोग ,
अपने बच्चों की फोटोग्राफ्स ,
कभी रीडिंग टेबल पे ,
फेसबुक पे ,ऑरकुट पे,
नहीं सजाते वो अपने माँ -पिता की तस्वीर .......
अपने आस -पास ,
पहचान अपनी  भूलते है कैसे लोग ?......

बंटवारा



" खिसारी की दाल'और" जवार की रोटी "
नहीं होती बेस्वाद .......
कई जगह बच्चे खाते है इन्हें लेकर स्वाद ,
नहीं जानते है वे बच्चे ,
कैसा होता है गेहूं का आटा?.....
क्यूंकि उनकी माँ की विधवा पेंशन ,
सरकारसे मिली हर सब्सिडी को ,
"कई लोगों ने बांटा "..........








Friday, August 26, 2011

मन करता है..

हर चुभन हर टीस पर,
किसी की दी हर खीझ पर,
किसी के दिए व्यंग्य पर,
किसी के पढ़े छंद पर,
लिखने का मन करता है...
किसी नेता के वादे पर,
उनकी कार्यवाही के इरादे पर,
भ्रष्टाचार विरोधी कमेटी की
अंत हीन कारगुजारियों पे,
लिखने का मन करता है..
किसी गटर के खुले ढक्कन पर,
सुलभ शौचालय की दुर्लभता पर,
नल के खाली होने पर..
बोतल में पानी मिलने पर,
लिखने का मन करता है,
पतली  उँगलियों के बीच फंसी सिगरेट पर,
लड़की शिशुओं के कचरे में मिलने पर,
अन्ना हजारे के इरादे पर,
लिखने का मन करता है..

पुनरावृत्ति

कैक्टस सी उलझने,
पानी न खाद लगतीं पनपने,
जब भी कतरों कैंची से,
मन की जमीं पर लगती है नयी पौध जमने,
दिन लगते आराम से गुजरने,
पर सहज सरल सा समय नहीं पाता पनपने,
फिर कभी कही से उग जाती हैं कैक्टस की कोपलें..
फिर से लगता है हर पल कैक्टस के संग पलने,
कितना भी कतरों कैंची से..
फिर फिर आती हैं कोपलें ...
कैक्टस भी तो जीता है, 
हम में कही अपने सपने,
शायद वो भी खुश होता है..
तभी तो लगते हैं...
उसपे भी सुर्ख लाल फूल उगने ..



Monday, August 15, 2011

jazbat

होते नहीं क्यों जज्बात पुराने ,
तासीर बन गयी नश्तर क्यों,
ताबीर गर खयालात की मुकम्मल नहीं,
थी तामील करी जो ...रह गयी थी उसमे कोई कमी ?

Monday, December 27, 2010

maa

"माँ" इसे मैंने नहीं चुना ,
  ये तो वो है जो मैंने तेरे भीतर सुना ,
मै तो हिस्सा हू तेरा,  तेरे लहू से बुना ,
नहीं कोई है  ऐसा कर्म जिससे चुक जाये 
ये कर्ज घना ,
प्रथमतः "अम्मा" कहके,  
धरती पर मेरा वो रुदन नहीं ,
मैंने तो तेरे नाम का है गुणगान गुना ......        

Wednesday, June 16, 2010

aurat

ढूढती है अपनी ज़मी,
सालती है सहयोग की कमी ,
पृथक-पृथक ज़िम्मेदारिया ;
औरत बटती जाती है ,
पति को घर में ;ऑफिस में बॉस को ,
'चलते पुर्जे ' की जरुरत होती है ,
बेहतर करने की कोशिश में ;
औरत पिसती जाती है ,
भविष्य बच्चों का सवारना;
ख्याल सबका रखना ,
अपनों को अपेक्षित मंजिल तक पहुचाने में ,
औरत घिसती जाती है ,
वरीयताओं को छोड़ अपनी ;
तलाशती पहचान अपनी ;
खुद को साबित करने में ,
औरत घटती जाती है ,
एक अच्छी माँ ,
एक अच्छी पत्नी ,
एक अच्छी एम्प्लोई ,
क्या है सिर्फ यही उसका मुकाम ?
समय से पहले ही ;
औरत बूढी होती जाती है .......

inteha

बात जब दीदार -ए-यार की हो ,
बात जब इंतज़ार की हो ,
हालात कैसे भी हो ;मसरूफियते हो '
फिर भी फ़लक तक  पहुंची ;
प्यार की सरगोशियाँ ,अन्दर की जमी को एक छलकता पैमाना बना देती है........
बात जब बेशुमार प्यार की हो '
बात जब दिल -ए -बेक़रार की हो ,
हालात कैसे भी हो;बंदिशे हो ,
ज़हनी जुडाव दूरिओं को कम कर देता है,
दीवानगी में समय की कमी कहाँ रहती है ,
बात जब इकरार की हो ,
बात जब इज़हार की हो ,
हालात कैसे भी हो ,मुश्किलें हो ,
कभी नज़रें तो कभी मुस्कराहते,
गहराई प्यार की बयां कर जाती है ,
बात जब ऐतबार की हो ,
बात जब तकरार की हो ,
हालात कैसे भी हो ,बेचैनियाँ हो ,
खोल दो खुशनुमा यादों की पिटारी ....
रखो य़की खुद पे और ख़ुदा  पे ,
दुनियां मोहब्बत की महकती रहेगी .....

shabd

शब्दों का असर होता है ,
शब्द कभी वर्तमान ;कभी भविष्य होता है ,
शब्द कभी फाँसी;कभी मुक्ति ,
कभी अपनापन ;कभी मरहम होता है ,
सब जानते है फिरभी बिना सोचे समझे उड़ेलते है ,
कभी अपशब्द ,कभी शब्द पे शब्द .

Tuesday, June 15, 2010

ibadat

कितना अच्छा हो ...
गर ख़ुदा मुझे ,
बेपरवाह कर दे ...
अपनेआप से ,समाज से ,
हर उस अपने से ..
जिसे चाहना मेरी आदत में शुमार है ...
ऐ ख़ुदा तू मेरी ये आदत बदल दे ,
सिर्फ तुझे सोचना मेरी दीवानगी बना दे ...
करू सिर्फ तेरी परवाह ,
बाकि हर तरफ से मुझे  कर दे बेपरवाह ...

Tuesday, February 23, 2010

दीवानगी

तुम्हारी नज़र अब नरम हो गयी है ...
तुमसे नज़दीकिया अब ग़ज़ल बन गई है ...
मुलाकात तुमसे यूँ ही नहीं है ;
खुदा के रहम की दरियादिली है ...
चेहरा तुम्हारा सबसे जुदा है ,
खुदा की नायाब कारीगरी है ...
इश्क की तपिश सबसे अल्हदा है ,
खुदा की बनाई दीवानगी है ...
उलझी पहेली थी अपनी मोहब्बत ,
खुदा के करम से सुलझ सी गयी है ...
किये थे कायनात से सवाल ;
दी थी अश्कों की इबादत ;
तुम मिले ,संग चले ,मेरी खुशकिस्मती है ...
हमराज बने तुम ,हमखयाल भी ,
खुदा ने बरसा दी हमपे रौशनी है ....
Copyright- Abhilasha khare

Thursday, February 18, 2010

पिता

खड़ा "वह "अपनी चौखट पर ,
आस -पास बने ऊँचे मकानों को ;
तकता नज़र भर ,
फिर देखता मेहनत से बनाया ;
अपना छोटा सा घर ,
देता शिक्षा अपने बच्चो को ,
अच्छे पिता की तरह ;
घर के भीतर ,
ऊँची है भले ही उनके छत की प्राचीर ,
देखना पड़ता है हमें सर उठाकर ,
तुम ऊँचे बनना ;और बनना सच्चे ,
बड़े होकर ॥
तुम तक पहुचनें के लिए ;
सोचना पड़े उन्हें ;करनी पड़े बात तुमसे ,
गर्दन झुकाकर...
और तुम्हारी ऊंचाई से मिलने वाली प्रसन्नता ,
हो इतनी गहरी कि सारे झेले अवसाद ,
उड़ जाये पुष्प बनकर ....

Sunday, February 14, 2010

अपनी बात

सोचा था कभी मैंने भी ...
पहचान अलग सी होगी ,
प्रतीस्पर्धा की होड़ है ,
दौड़ लगनी होगी ...
प्रयासरत थी तभी दिल की अँधेरी सी एक गली ,
अचानक रोशन हुई ...
अब तो बेटी की जूठन की इमरतीओ को ;
अपने मुह में लतपताना अच्छा लगता है ...
उसकी भोली बतिया छौक से निकली फुटकीया
कुछ हल्दी की चुटकिया रस भरी भोली बतिया ;
सुनना अच्छा लगता है...
समोसे की मिर्ची और हलवे की मिठास में ,
कभी -कभी गर्मी में ;खस -खस की प्यास में ,
गुजरते गज़र के घंटो में सजन को सजाना ,
अच्छा लगता है ...
अक्षरों को जगाकर ;मन में दिया जलाना,
मोती की , पूसी की ,धोबन की बेटी की ,
भूख में रोटी का टुकड़ा बन जाना,
अच्छा लगता है ...
प्रकृति को निहारना ,सखियों संग बाते करना ,
चुटकुलों की चौपड़ पे मुस्कानों के पुल बनाना ,
अच्छा लगता है ...
सभी बच्चो को अपनाना;
शब्दकोष से "अनाथ 'शब्द मिटाना ,
हर चेहरे पे मुस्कान खिलाना ,
अच्छा लगता है ...
जीवन की ऊचाइओ को छू लेने की दौड़ ,
अब भूल गयी हूँ ,अब जीवन के राग गुनगुनाना ,
अच्छा लगता है ....

Saturday, February 13, 2010

नशा

न बीवी की आँखों में ,
न बच्चों की भोली बातों में ,
जन्नत है कही तो बस
इस दारु की बोटेल में ...
बड़े -बड़े राजा महाराजा ,
मतवाले बन नाचे है
राज्य दुमहले हारे है
इस दारू की पीनक में,
खुद को जिंदादिल कहते है ,
अपनों को गाली देते है ,
सपनो के शहजादे है ,क्या मिलता है बेहोशी में ....
कोई सपना अपना हो न हो ,कोई नीड़ बसे या उजड़े ,
एक रिश्ता तो जलता है,
इस दारू की बोटेल में ...
दिलके जले को को दिलजला ही समझता है ,
सबको अपना हमदर्द मानता है ,
मरती है सच्ची दोस्ती की परिभाषा ,
इस दारू की बोटेल में ....
हर रोज नहीं लेते ,मिल जाए मौका तो पीना छोड़ते नहीं ,
डूब जाती है सारी शर्म हया ,
इस दारू की बोटेल में ....
नशे में निडर हो जाते है ,
मनचाही बाते करते है ,
कहते है शेरनी का दूध है ,
इस दारू की बोटेल में ....
ओ इंसानों !अब संभल भी जाओ ,
अपने बच्चों को तो नशेल्ची मत बनाओ ,
मिट जाएगी तुम्हारी सारी आशाएं,
इस दारू की बोटेल में ....

मिलावट

आज सब्जी में , दालमें ,काल में ,हर चालमें ;
है मिलावट,व्यर्थ का आडम्बर ...
ऊपरी सजावट,
सशक्त नहीं जब तन ,बोझ उठाये कैसे मन ,
स्वारोपित दर्पण, बढती जाती है झुझलाहट,
डूबा है कर्ज में 'अपने घर' का स्वपन ,
साहूकार अब बैंक बने ,
ब्याज चुकाता बाप ,बढती बेटे की अकुलाहट ,
विशवास की परम्परा धूमिल पड़ गयी है ;
आज मंत्री की ,संतरी की ,पंडित की जंतरी की ,
झूठी है लिखावट,
रे मन ! संतोष का बीज बो ले अब ,
स्वस्थ रहे पीढ़िया न झेले कोई रुकावट ,
घरौदे बने ; बस सके बार -बार ...
बढती रहे निरंतर दीपावली की जगमगाहट ...

Friday, February 12, 2010

रफ़्तार

रफ़्तार हमारी धीमी है ,पर ख़यालों में चीनी है ....
गिराना ,गिरना नहीं मंज़ूर ,
थामने,संभलने में क्या कसूर ,
अधिकार जताना दूर की बात ,
एक भी चीज नहीं छीनी है ....
व्यस्तता का है ताना -बाना ;
नज़र घड़ी बन जाती है,
मनचाहा कुछ हो नहीं पाता;
बस चक्की मन की चलती है ...
सबको खुश रखने की कोशिश ,
मन पे बोझ बढाती है ,
पहचान बनी न बनी ; तेजी से उम्र गुजरती है ...
है चलायमान वृत्त ;आगत की दस्तक है ,
पुनरावृति कर दो कम ;
सहेजो ज्यादा ;खोओ कम ,
उपलब्धियां बढती जाती है ...
लगते सब इंसा अलग से ,
किन्तु संघर्ष सबके एक से ,
प्यार है ,परिवार है ,सबकी एक सी कहानी है ॥
धुंदली;अस्पष्ट लकीरों में ,
एक ही सच्ची तस्वीर साथ होनी है ,
उथले शब्द रवानगी पक्की ,
चादर सबकी झीनी है ......

Tuesday, January 12, 2010

रिश्ते

रिश्ते है तो नाम छोटा सा,
जो समेटे अनंत गहनता ,
देते है नाम रिश्ते,
भीड़ में नहीं खोने देते....
खुद से पहचान कराते रिश्ते ,
अर्पण , तर्पण ,समर्पण सिखाते ,
जन्म के साथ मिल जाते रिश्ते ,
करते रहो जब तक अर्पण ...
लुटाते है नेह रिश्ते ,
किन्तु जब चाहो हटकर लीक से कुछ करना ,
परम्पराओं की गठरी दीखाते,
बन जाते है शूल ,चुभाते उल्हनाओं के त्रिशूल रिश्ते,
कभी एक दर्द, कभी एक जाम ,कभी एक पैगाम है...रिश्ते ,
अनुकूल है तो बन जाते है आशीर्वाद रिश्ते ,
अपनों की प्रतिकूलता से बड़ा कोई 'दर्द 'नहीं ,
अपना बना के तो देखो...
हर गम की दवा बन जाते है रिश्ते.....





Friday, January 8, 2010

पाती

मुझे छोड़ एकाकी,
नींद सो जाती,
जागती आँखों से नींद खोजता,
मैं बन जाता दीपक बिन बाती,
शने शने चादर पर सलवटे बढती जाती,
मेरे समर्पण को देख रात्रि और गहराती,
निस्तब्धता बढती जाती,
तब पढता मैं हृदय पाती,
पाती के अक्षर पग चिन्हों से लगते ,
और मैं बन अन्वेषक,
रख पग उन पर आगे बढ़ता अक्षर अक्षर...
पग पग पर ढूंढता नक्षत्र स्वाति,
क्योंकि रह रह कर उर में,
अभिलाषा इक आती...
" काश ! बूँद इक स्वाति की जो मिल जाती,
तो बन जाता मोती और मेरी अंजुली भर जाती,
प्यास पग पग पर बढती जाती,
पाती द्रौपदी का चीर होती जाती ,
और फिर क्या पता कब?
रात कुम्हला जाती..

Thursday, January 7, 2010

खबर

कल ही पेपर में पढ़ा था, ठण्ड है ज्यादा ....
जगह -जगह अलाव जल रहे है ,
किसी नेता ने कहा था ;हम ध्यान दे रहे है ,
फिर आज ये कैसी खबर ....
दस की हुई मौत सर्दी से ठिठुर ,
हुआ कष्ट बहुत ,पड़ी रो अंतरात्मा,
की रहते वातानुकूलित कमरों में हम,
दुबके रजाई में हम ,
कष्ट सहते खुले आसमान के नीचे रहते ,
ठण्ड से मरते ...
वो भी इंसान और हम भी ,
दायित्व क्या ये सिर्फ नेताओं का ,हमारा नहीं ...
इंसानियत हममे क्या शेष न रही ....
कर सकते नहीं हम महसूस क्यों पीड़ा ...

कुछ कर गुजरने का उठा लो तुम बीड़ा ,
भूख से ठण्ड से फिर मरे न कोई ,
तुम्हारे भीतर की मानवता ...
रहे न अब सोई .

Wednesday, January 6, 2010

कलियुग का क्या दोष

निन्यान्न्बे का चक्कर , नहीं किसी का डर,
किसने उगाई फसल ,कौन रहा काट ?
हृद निर्मल न रहे ...बन गए है काठ ,
माली ने बेच दी फिर से कच्ची पौध ,
कितनी कलियाँ खिली नहीं ,
दी गई हैं नोंच....
हँसना तो सीखी नहीं ,
और रोने पर भी रोक ,
भले ही टूटे दिल ,और छूटे साथ ,
जिस्म की दूकान में बिकती हाथों हाथ ...
कैसे भी ? कुछ भी करके आना चाहिए पैसा ,
होड़ लगी है भाई, न हो कोई मेरे जैसा ....
जब स्वार्थ से दूषित है सोच ,
"तब कलियुग को क्यों दे दोष ".

विवशता

मेरे यहाँ काम करने आने वाली सावित्री बूढी हो गयी है ,
उससे बीस बरस बड़ा पति चार बच्चे देकर
जब वो तीस की थी गुजर गया ,
मजदूरी करके बच्चों की परवरिश
में सावित्री ने जवानी गला दी...
वह चरित्रहीन होती तो ज़िन्दगी "फिर भी" आसान हो जाती ,
पर खुद की नज़र में सावित्री कभी गिरी नहीं ,
अब बच्चे बड़े हो गए हैं ,
मारते हैं गालियाँ देते हैं ,
खाने को भी कुछ नहीं देते,
तब भी सावित्री कापते हाथों से काम करती है॥
जो उसे खाना मिलता है ,
खुद नहीं खाती पोतों को ले जाती है...

Tuesday, January 5, 2010

अंशु

वह गाँव के सम्पन्न घर का एक पांच साल का बच्चा था ...
देखने में भी अंशु खाते - पीते घर का लगता था ,
माँ का दुलार दादा - दादी का प्यार उसे मिलता था ,
एक दिन उसके शहर में रहने वाले चाचा - चाची आये ;
साथ में अपनी पांच साल की बेटी लाये ;बेटी अंग्रेजी बोलती थी ,
अंशु के माँ -बाप बहुत प्रभावित हुए ,
चाचा -चाची के साथ अंशु शहर आ गया ,
उसका एक अच्छे स्कूल में नाम लिख गया ,
छः महीने के बाद उसके मम्मी - पापा मिलने आये तो अंशु को पहचान नहीं पाए ,
उसे गाँव में जो पढना आता था वो भी सब वो भूल गया था ,
कई आवाजों पे न सुनने वाला अंशु एक आवाज़ में दौड़ा आता था ,
डरा-डरा सा अंशु अपने माँ-पिता को भी भूल गया था .......

फर्र्क

मैंने पूछा !
तुम्हारे भाई अब पढने नहीं आते,
वो बोली,
मैडम अब वो प्राइवेट स्कूल जाते हैं,
तो तुमने भी वहीँ नाम क्यों नहीं लिखाया?
ये सुन उसने अपना सर झुकाया ,
पापा बोले हैं की तुम लड़की हो,
बस किताब भर पढना सीख लो
तो काम चल जायेगा ...
तुम्हारे भाइयों को तो नौकरी करनी है॥
इसीलिए उन्हें ढंग से पढाई करनी है...
तुम तो जाओगी ब्याही ,
और पकानी है रोटी...
फिर क्यों करनी है तुम्हे पढाई में अपनी जिंदगी खोटी...


छोटी माँ

आठ साल की बच्ची पूनम ,रोज मेरी कक्षा मैं आती है ...
एक तरफ बस्ता टांगे,दूसरी तरफ अपने छोटे भाई को भी टांग ले आती है ,
फिर एक कोना तलाशती अपने बस्ते से बैठने का बोरा निकालती,
चुपके से पहले अपने भाई को बिठाती ,रोना नहीं तुम ...
मैडम क्लास से बाहरकर देंगी ; समझाती है ,
पढाई से ज्यादा उसका ध्यान भाई को चुप करानेपर रहता है ...
धीरे से उसकी नाक साफ़ करती है फिर कॉपी पे कुछ लिखती है ,
स्कूल से जो खाना मिलता है वो खुद नहीं खाती ,
भाई को खिला देती है ...
उसके पीछे भाग - भाग कर उसको खूब हंसाती है ,
मैडम भाई ने टट्टी कर दी है जाऊं ,कहके कक्षा से बीच मैं बाहर निकलती है ,
उसके माँ - बाप ने इतने बच्चे पैदा कर दिए है जिन्हें पेट भर खाना देने के लिए;
दोनों को काम पर जाना पड़ता है ,
पांच भाई -बहनों मैं तीसरे नंबर की पूनम को अपना बचपन खोना पड़ता है ,
चार बजे छुट्टी के बाद पूनम सब्जी काटती , आत्ता सानती,झाड़ू पोंछा भी करती है ,
उसके माँ - बाप से कहकर देखा है की भाई को साथ मत भेजो पूनम पढ़ नहीं पाती है ,
जवाब में उन्होंने कुछ नहीं कहा बस पूनम अब स्कूल नहीं आती है ,
वह अब सिर्फ छोटी माँ है, जिसे अपने से ज्यादा चिंता अपने भाई - बहनों की करनी पड़ती है ,
एक बार फिर मैंने पूनम के पापा को बुलाया ;समझाया ,
उसके छोटे भाई -बहनों का नाम आंगनबाड़ी में लिखवाया ;
ताकि ये छोटी माँ अनपढ़ न रह सके ...
और भविष्य में अपने होने वाले बच्चों के लिए ,
यह 'छोटी माँ 'एक 'अच्छी माँ' बन सके .

Monday, January 4, 2010

अहसास

एक मीठा सा अहसास है ...
तुम करीब हो ,
भीगे से है जज्बात है ....
तुम नसीब हो ...
वो भीगे -भीगे पल , अनजानी सी हलचल ,
बहके से ख़यालात है ....
तुम करीब हो ,
तुम्हे नज़र भर के देख लू
छलका दू पैमाने प्यार के ,महके से लम्हात है ....
तुम करीब हो .....
बंद आँखों से ख्वाब सजाने की ,
रुख पे नरमी लाने की ,पाकीजा सी रात है ....
तुम करीब हो ....
तुम हो तो सब है, तुम हो तो रब है,
चांदनी से धुली तारों में सिमटी ,
हसीं कायनात है ...
तुम करीब हो ...
ऐ रब यूँ ही रौशन रहे चिराग- ऐ - इश्क अपना ,
बेफिक्री है सुकून है कितना , आस्मां तक जा पहुची अपनी ये मुलाकात है,
तुम करीब हो...
एक दूजे को सम्हालते यूँ ही उम्र गुजर जाए , हसरतों की तामील है ,
तुम करीब हो...

आरम्भ

हरी ॐ