Friday, January 8, 2010

पाती

मुझे छोड़ एकाकी,
नींद सो जाती,
जागती आँखों से नींद खोजता,
मैं बन जाता दीपक बिन बाती,
शने शने चादर पर सलवटे बढती जाती,
मेरे समर्पण को देख रात्रि और गहराती,
निस्तब्धता बढती जाती,
तब पढता मैं हृदय पाती,
पाती के अक्षर पग चिन्हों से लगते ,
और मैं बन अन्वेषक,
रख पग उन पर आगे बढ़ता अक्षर अक्षर...
पग पग पर ढूंढता नक्षत्र स्वाति,
क्योंकि रह रह कर उर में,
अभिलाषा इक आती...
" काश ! बूँद इक स्वाति की जो मिल जाती,
तो बन जाता मोती और मेरी अंजुली भर जाती,
प्यास पग पग पर बढती जाती,
पाती द्रौपदी का चीर होती जाती ,
और फिर क्या पता कब?
रात कुम्हला जाती..

No comments:

Post a Comment